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जैन तत्त्वादर्श
देव, गुरु, धर्म, अरु धन के कार्य में स्वजन के साथ शामिल रहे। जिस स्त्री का पति परदेश में गया होवे, ऐसे स्वजन के घर में अकेला न जावे । तथा स्वजनों के साथ लेने देने का व्यापार न करे । तथाहि
यदीच्छेद्विपुलां प्रीतिं त्रीणि तत्र न कारयेत् । वागूवादमर्थसम्बन्धं, परोक्षे दारदर्शनम् ॥
तथा इस लोक के कार्य में स्वजनों के साथ एकचित रहे, अरु जिनमन्दिरादि कार्य में तो विशेष करके स्वजन से ही मिल के करे । क्योंकि ऐसे कार्य जेकर बहुतों से मिल के करे, तो ही शोभा है ।
व्यवहार
७. अब गुरु उचित कहते हैं-धर्माचार्य के साथ उचित भक्ति अन्तरंग का बहुमान, वचन, काया गुरु से उचित का आवश्यक प्रमुख कृत्य करना । गुरु के पास शुद्ध श्रद्धापूर्वक धर्मोपदेश श्रवण करना । गुरु की आज्ञा माने । मन से भी गुरु का अपमान न करे, गुरु का अवर्णवाद किसी को बोलने न देवे । गुरु की प्रशंसा सदा प्रगट करे, गुरु की प्रत्यक्ष वा परोक्ष स्तुति करे । गुरु स्तुति जो है, सो अगणित पुण्यबंधन का कारण है । गुरु के छिद्र कदापि न देखे । गुरु से मित्र की तरे अनुवर्तन करे । गुरुं के प्रत्यनीक - निंदक को सर्व शक्ति से निवारण करे । कदाचित्