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________________ ૨૦૦ जैन तत्त्वादर्श देव, गुरु, धर्म, अरु धन के कार्य में स्वजन के साथ शामिल रहे। जिस स्त्री का पति परदेश में गया होवे, ऐसे स्वजन के घर में अकेला न जावे । तथा स्वजनों के साथ लेने देने का व्यापार न करे । तथाहि यदीच्छेद्विपुलां प्रीतिं त्रीणि तत्र न कारयेत् । वागूवादमर्थसम्बन्धं, परोक्षे दारदर्शनम् ॥ तथा इस लोक के कार्य में स्वजनों के साथ एकचित रहे, अरु जिनमन्दिरादि कार्य में तो विशेष करके स्वजन से ही मिल के करे । क्योंकि ऐसे कार्य जेकर बहुतों से मिल के करे, तो ही शोभा है । व्यवहार ७. अब गुरु उचित कहते हैं-धर्माचार्य के साथ उचित भक्ति अन्तरंग का बहुमान, वचन, काया गुरु से उचित का आवश्यक प्रमुख कृत्य करना । गुरु के पास शुद्ध श्रद्धापूर्वक धर्मोपदेश श्रवण करना । गुरु की आज्ञा माने । मन से भी गुरु का अपमान न करे, गुरु का अवर्णवाद किसी को बोलने न देवे । गुरु की प्रशंसा सदा प्रगट करे, गुरु की प्रत्यक्ष वा परोक्ष स्तुति करे । गुरु स्तुति जो है, सो अगणित पुण्यबंधन का कारण है । गुरु के छिद्र कदापि न देखे । गुरु से मित्र की तरे अनुवर्तन करे । गुरुं के प्रत्यनीक - निंदक को सर्व शक्ति से निवारण करे । कदाचित्
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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