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________________ नवम परिच्छेद २८९ गुरु प्रमाद के वश से कहीं चूक जावे, तव एकांत में हितशिक्षा देवे, अरु कहे कि, हे भगवन् ! तुम सरीखों को यह काम करना उचित नहीं । गुरु का विनय करे, गुरु के सन्मुख जावे, गुरु निकट आवे, तो आसन छोड़ के खड़ा हो जावे, गुरु को आसन देवे, गुरु की पगचम्पी करे । गुरु को शुद्ध, निर्दोष, वस्त्र, पानाहारादि देवे । यह द्रव्योपचार है। अरु भावोपचार, सो गुरु का परदेश में सदा स्मरण करे। ८. अब नगरनिवासी जनों का उचित कहते हैं-~-जिस नगर में रहे, उस नगर के निवासी जनों के नगरवासी से उचित साथ उचित इस प्रकार से करना । अपने व्यवहार सरीखी जिन व्यापारियों की वृत्ति होवे, __ उनके साथ जो एकचित्त से सुख, दुःख, व्यसन, कष्ट, राज के उपद्रवादि में बरावर रहे, उनके उत्साह में उत्साहवान् होवे । राजदरवार में किसी की चुगली न करे । तथा नगरनिवासियों से फटे नहीं। सर्व से मिल कर राज का हुकुम करे, क्योंकि जब निर्बल पुरुष बहुत इकडे हो के कार्य करें, तब तृणरज्जुवत् बलवान् हो जाते हैं। जब विवाद हो जावे, तब निष्पक्ष हो के कार्य करे। किसी से लांच ले कर झूठा काम न करे। तथा किसी से थोड़ी सी लड़ाई हो जावे, तो उसकी राज में पुकार न करे । तथा राजा के कारभारियों से लेने देने का व्यापार न करे, क्योंकि उन लोगों को नाणा देने के अवसर में क्रोध
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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