________________
२८६
जैनतत्त्वादर्थ करे, क्योंकि बाल्यावस्था' में वीर्यक्षय' हो जाने से वृद्धि, पराक्रम अरु आयु अधिक नहीं होता है। सर्व जैनमत के शास्त्रों में ऐसे ही लिखा है कि, जब पुत्र को भोगसमर्थ जाने, तब- पुत्र का विवाह करे। तथा जिस कन्या से विवाह करावे, उस कन्या का कुल, जन्म, रूप सरीखा होवे, तब विवाह करावे। तथा पुत्र के ऊपर घर का भार सर्व गेरे, घर का स्वामी बना देवे । तथा जिस कन्या में सरीखे गुण न होवें, उसके साथ विवाह करना महाविडंबना है। विवाह के भेद आगे लिखेंगे। जब पुत्र के ऊपर घर का भार होवेगा, तब चिंताक्रांत होने से कोई भी स्वच्छंद उन्मादादि न करेगा, क्योंकि वो जान जावेगा कि, धन बडे क्लेश से प्राप्त होता है। इस वास्ते अनुचित व्यय न करना चाहिये । ऐसा वो आप से आप जान जावेगा। परन्तु पुत्र की परीक्षा करके पीछे उसके ऊपर घर का भार डाले; जैसे प्रसेनजित राजा ने श्रेणिक पुत्र को दिया। तथा पुत्र की तरें पुत्री के साथ अरु भतीजादिक के साथ भी यथायोग्य उचित जान लेना । ऐसे ही बेटे की बहु.के. साथ-मी धनश्रेष्ठी की तरें उचिताचरण करे। तथा प्रत्यक्षपने पुत्र की प्रशंसा न करे। तथा जब कष्ट पड़े, तब दुःख सुख की वातः कहे। तथा। आय व्यय का स्वरूप कहे । तथा पुत्र को राजसभा दिखावे,, क्योंकि क्या जाने बिनाविचारे कोई कष्ट आ पड़े, तब क्या करे । तथा