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व्यवहार
नवम परिच्छेद उसका मनोरथ पूर्ण करे, परन्तु अंतराय न करे । क्योंकि स्त्री जो धर्मकृत्य करेगी उस में से पति को भी पुण्य होगा, क्योंकि पति उस कृत्य करने में बहुत राजी रहे है। ५. अथ पुत्र के साथ उचिताचरण लिखते हैं-पिना
अपने पुत्र को बाल अवस्था में बहुत मनोन पुत्र से उचित पुष्टाहार से पोषे, स्वेच्छापूर्वक नाना प्रकार व्यवहार की क्रीडा करावे । क्योंकि मनोज्ञ पुष्ट आहार
देने से बालक के बुद्धि बल, अरु कांति की वृद्धि होती है। स्वेच्छा क्रीड़ा कराने से शरीर पुष्ट होता है। अरु अंगोपांग संकुचित नहीं होते हैं । नीति में कहा भी है
लालयेत् पंच वर्षाणि, दश वर्षाणि ताडयेत् । प्राप्ते तु षोडशे वर्षे, पुत्रं मित्रपदाचरेत् ।।
तथा गुरु, देव, धर्म अरु सुखी स्वजन, इनकी सगति करावे। भली जाति, कुल आचार, शीलवान् ऐसे पुरुष के साथ मित्राचारी करावे । क्योंकि गुरु आदि का परिचय होने से बाल्यावस्था में भली वासनावाला हो जाता है, वल्कलचीरीवत् । जाति, कुल, आचारशील संयुक्त की मित्रता से, दैवयोग से कदापि अनर्थ भी आ पडे, तो भी भले मित्र की सहायता से कष्ट दूर हो जाता है । जैसे अभयकुमार के साथ मित्रता करने से आर्द्रकुमार को भली वासना हो गई। तथा नव अठारां वर्ष का पुत्र हो जावे, तब उसका विवाह