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अष्टम-परिच्छेद
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अथ पंदेरा कर्मादान का स्वरूप लिखते हैं । इन पंदरह व्यापार का श्रावक को निषेध है, सो करना
पंदरह कर्मादान नहीं । क्योंकि इन के करने से बहुत पाप लगता है । जेकर श्रावक : की आजीविका न चलती होवे तो परिमाण कर लेवे । सो अब पंदरा कर्मादान का नाम कहते हैं :- ·
१. इंगालकर्म - सो कोयले बना कर बेचने, ईंटें बनाकर वेचनी; भांडे, खिलौने बना पका करके बेचे । लोहार का कर्म, सोनार का कर्म, बंगड़ीकार, सीसकार, कलाल, भठियारा, भड़भूंजा, हलवाई, धातुगालक, इत्यादि जो व्यापार अग्नि के द्वारा होवें, सो सर्व इंगालकर्म हैं । इस में पाप बहुत लगता है, अरु लाभ थोड़ा होता है, इस वास्ते यह कर्म श्रावक न करे |
२. वनकर्म - सो छेद्या अनछेद्या वन बेचे, बगीचे के फल पत्र वेचे, फल, फूल, कंदमूल, तृण, काष्ठ, लकड़ी, वंशादिक वेचे, तथा जो हरी वनस्पति बेचे । यह सर्व कर्म है ।
३. साड़ीकर्म -- गाड़ी, बहिल तथा सवारी का रथ, नावा, जहाज़, तथा हल, दंताळ, चरखा, घाणी का अंग, तथा घूंसरा, चक्की, उखली, मूसल प्रमुख बना करके वेचे; यह सर्व साड़ी - शकटकर्म हैं ।
४. भाड़ीकर्म – गाड़ा, वलद, उंट, भैंस, गधा, खच्चर,