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________________ नवम परिच्छेद २३९ गुरु को कहे तुम को अर्थ याद नहीं है, यह अर्थ एसे नहीं होवे है । २७. गुरु कथा कहता है, तिस कथा को वीचमें छेद करे, अरु कहे कि मैं कथा करूंगा । २८. पर्षदा को भांगे, जैसे कहे कि अब भिक्षा का अवसर है, इत्यादि कहे। २९. पर्षदा के विना उठे गुरु की कही कथा को अपनी चतुराई दिखलाने के वास्ते विशेष करके कहे । ३०. गुरु की शय्या- संथारकादि को पगों से संघट्टा करे। ३१. गुरु की शय्यादि उपर बैठना आदि करे। ३२. गुरु से ऊंचे आसन पर बैठे । ३३, गुरु के बरावर आसन करे। यह गुरु की आशातना मी तीन प्रकार की है, एक पगादि से संघट्टा करे, सो जघन्य आशातना, दूसरी श्लेष्म, थूकादि गुरु के लवमात्र लगावे, तो मध्यम आशातना है। तीसरी गुरु का आदेश न करे, जेकर करे, तो भी उलटा करे, कठोर वचन बोले, गुरु का कहा न सुने, इत्यादि उत्कृष्ट आशातना है। स्थापनाचार्य की आशातना मी तीन प्रकार की है। १. इधर उधर हलावे, पगों का स्पर्श करे, अन्य आशातना तो जघन्य आशातना, २. भूमि में गेरे, अवज्ञा से घरे, सो मध्यम आशातना, ३. स्थापनाचार्य को खोवे, तथा तोड़े तो उत्कृष्ट आशातना है। ऐसे ही ज्ञानोपकरण, दर्शनोपकरण, तथा चारित्रोपकरण, रजोहरणादि, मुखवस्त्रिका, दंडक, दंडिका प्रमुख की भी आशातना
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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