________________
२४०
जैनतत्वादर्श पहिले दाले।
श्रावक को, सर्व धर्मोपकरण-चरवला, मुखवस्त्रिकादि विधिपूर्वक स्वस्थान में स्थापना करनी चाहिये, अन्यथा धर्म की अवज्ञादि दूषणों की आपत्ति होवे । शास्त्र में लिखा है कि, जो सत्सूत्र भाखे, तथा अहंत की अरु गुरु की अवज्ञादि महा आशातना करे, तो उसको सावधाचार्य, मरीचि, जमाली, कूलवालकादि की तरें अनंत जन्म मरण की वृद्धि होवे । यत:--
उस्सुत्तमासगाणं, वोहीनासो अणंतसंसारो। पाणचएवि धीरा, उस्सु ता न भासंति ॥ तित्थयरपवयणसुयं, आयरियं गणहरं महिड्डियं । . आसायंतो बहुसो, अणंतसंसारिओ होइ ।। इन का अर्थ सुगम है
ऐसे ही देव, ज्ञान, साधारण द्रव्य का तथा गुरु द्रव्यवस्त्र, पात्रादि का विनाश, तिन की उपेक्षादिक जो करनी है, सो भी महामाशातना है। ।
चेइअदच्चविणासे-इसिघाए परयणस्स उड्डाहे । संजइचउत्थभंगे मूलग्गी बोहिलामस्स !!
तथा श्रावकदिनकृत्य दर्शनशुद्धि आदि शास्त्रों में भी लिखा है- . . .