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जैनतत्त्वादर्श तो देवद्रव्य का ऋण रह जाय । और संसारी का देना भी श्रावक को शीघ्र दे देना चाहिये, तो फिर देवद्रव्य का क्या कहना है ! जिस वक्त माला पहराई तथा और कुछ द्रव्य देव के भंडारे में देना करा, उसी वक्त से वो देवद्रव्य हो चुका । उस द्रव्य से जो लाम होवे, सो मी देवद्रव्य है। उस द्रव्य को श्रावक ने भोगना नहीं। इस वास्ते शीघ्र दे देना चाहिये। जेकर मासादिक पीछे देने का कौल करे, तदा करार ऊपर विना मांगे जरूर दे देवे । जेकर करार उल्लंघ के देवे, तो देवद्रव्य खाये का दूषण लगे। देवद्रव्य की उगराही भी श्रावक अपनी उगराही की तरे यत्न से करे । जेकर देवद्रव्य लेने में ढील करे, अरु कदाचित् दुर्मिक्ष, दरिद्रादि अवस्था आ जावे, तो फिर मिलना दुष्कर हो जावे। तथा देनेवाला भी उत्साहपूर्वक कपट रहित होकर शीघ्र दे देवे । नहीं तो देवद्रव्य भक्षण का दोष है। ___तथा देवज्ञान साधारण सम्बन्धी हार, खेत, वाडी, पाषाण, ईंट, काष्ठ, बांस, मिट्ठी, खड़िया, चन्दन, केसर, बरास, फूल, फूलचंगेरी, धूपपात्र, कलश, वासकूपी, छत्र सहित सिंहासन, चमर, चन्द्रोदय, झालर; मेरी, चान्दनी, तंबू, कनात, पडदे, कंबल, चौंकी, तखत, पाटा, पाटी; घड़ा, बड़ा उरसा, • कजल, जल, दीवा प्रमुख चैत्यशाला, प्रनालादिक का पानी, ये सर्व पूर्वोक्त वस्तु देव की अपने काम में न वर्तनी चाहिये। टूट फूट अथवा मलिन हो