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________________ नवम परिच्छेद २४३ इस का अर्थ सुगम है कोई कहते हैं कि, श्रावक विना औरों का अधिक गहना रक्ख कालांतर में व्याज की वृद्धि करे, सो उचित है । ऐसा कहना भी ठीक है। क्योंकि सम्यक्त्वपञ्चीसी आदिक ग्रन्थों में संकाश की कथा में तैसे ही लिखा है । चैत्यद्रव्य के खाने से बहुत कष्ट होने हैं; सागरश्रेष्ठीवत् । यह कथा श्राद्धविधि अन्य से जान लेनी। ज्ञानद्रव्य भी देवद्रव्य की तरें अकल्पनीय है, अर्थात् नाश करना, भक्षण करना, बिगड़ते की सारसभाल न करनी। ऐसे ही साधारण द्रव्य भी संघ का दिया हुआ ही कल्पता है; विना दिया काम में लाना न कल्पे । संत्र को भी सात क्षेत्र में ही साधारणद्रव्य लगाना चाहिये। मांगनेवालों को उसमें से देना न चाहिये। ऐसे ही ज्ञान सम्बन्धी कागज़ पत्रादि साधु का दिया हुआ श्रावक ने अपने कार्य में नहीं लगाना । अपनी पोथी में भी न रखना । स्थापना. चार्य अरु जम्मालादि ले लेने का व्यवहार तो दीखता है। तथा गुरु की आज्ञा के विना साधु साध्वी को लिखारी से लिखाना अरु वस्त्र, सूत्रादि का लेना भी नहीं कल्पता । इत्यादि विचार लेना । तिस वास्ते थोड़ा सा भी ज्ञानद्रव्य अरु साधारणद्रव्य का उपभोग न करना चाहिये । जो द्रव्यदेव के नाम का वोले, सो तत्काल दे देवे; क्योंकि देवद्रव्य जितना शीघ्र देवे, उतना अच्छा है । कदापि विलम्ब करे, तो पीछे क्या जाने धनहानि, मरणादि हो जावे;
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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