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________________ ૨૪૨ जैन तत्त्वादर्श साधु को न प्रायश्चित्त है, तथा न उस साधु की प्रतिज्ञा भन्न होती है । आगम भी ऐसा ही कहता है । इस वास्ते जो श्रावक जिनद्रव्य को खावे, उपेक्षा करे, वो श्रावक, अगले जन्म में बुद्धिहीन, अरु पापकर्म से लेपायमान होता है । आयाणं जो भञ्जइ, पडिवन्नधणं न देह देवस्स | मस्तं समुविक्खड़, सो वि हु परिभमह संसारे || अर्थ:- जो पुरुष मंदिर की आमदानी भांगे, अरु जो मुख से कह कर जिनद्रव्य न देवे, सो भी संसार में भ्रमण करे । तथा जिणत्रयणवुद्धिकरं, पभावगं नाणदंसणगुणाणं । भक्तो जिणदवं, अनंत संसारिओ होड़ || अर्थः- जो जिनमत की वृद्धि करे, चैत्यपूजा, चैत्यसमारना, महापूजा सत्कारादि से ज्ञान, दर्शन की प्रभावना करे, परन्तु जिनद्रव्य का नाश करे, तो अनंतसंसारी होवे । अरु जेकर जिनद्रव्य की रक्षा करे, तो अल्पसंसारी हो जावे । देवद्रव्य की वृद्धि करे, तो तीर्थङ्करनामकर्म बांधे । परन्तु पंदरा कर्मादान, खोटा वाणिज्य वर्ज के सद्व्यवहार से जिनद्रव्य की वृद्धि करे । यतः -- जिणवरआणारहियं वद्धारंतावि केवि जिणदवं । बुति भवसमुद्दे, मूढा मोहेण अन्नाणी ||
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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