SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 537
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनतत्त्वादर्श तथा जिनोंके आगे समुद्र के अधिष्ठाताने अपने समुद्र की तरंगों से रल ढोकन करे। एक समय किसी दुष्ट स्त्रीने कार्मण संयुक्त बडे बना कर साधुओं को दिए, परन्तु धर्मघोषसूरिजीने वे बडे धरती ऊपर गिराए, अरु उस स्त्री को मन्त्र से पकड़ा / पीछे जब बहु दुःखी हुई, तब दया करके छोड़ दीनी / तथा विद्यापुर में पक्षांतरियों की स्त्रियोंने धर्मघोषजी के व्याख्यान रस के भंग करने वास्ते कण्ठ में मन्त्र से केश गुच्छक कर दिया। पीछे धर्मघोषसूरिजीने जब जाना, तब तिन स्त्रियों को स्तंभन कर दिया। तब तिन स्त्रियोंने विनति करी कि आज पीछे हम तुमारे गच्छ को उपद्रव न करेंगी। तब गुरुजीने संघ के बहुत आग्रह से छोड़ी। तथा उज्जयिनी में एक योगी जैन के साधुओं को रहने नहीं देता था / जब धर्मघोषसूरि तहां आये, तब उस योगीने साधुओं को कहा कि अब तुम इहां आये हो सो तकड़े हो कर रहना / तब साधुओंने कहा कि हम भी देखेंगे कि तू क्या करेगा ! पीछे उसने साधुओं को दांत दिखलाये, तब साधुओंने कफोणि (कूहनी) दिखलाई / पीछे साधुओंने बा कर यह सर्व समाचार अपने गुरु को कहा। वहां योगीने भी धर्मशाला में विद्या के बल से बहुत चूहे बना दिये, तब साधु बहुत डरे। पीछे गुरुजीने घडे का मुख वस्त्र से ढांक के ऐसा मन्त्र जपा कि जिस से योगी आराटि
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy