________________ द्वादश परिच्छेद करता हुआ आ के पाओं में पड़ा, और अपने अपराध की क्षमापना मांगी / तथा किसी नगर में शाकनियों के भय से मन्त्र के कपाट दिये जाते थे / एक दिन विना मन्त्रे कपाट दिये गये, तब रात्रि को शाकनियोंने उपद्रव करा / गुरुने उनको विद्या से स्तमित करा / एकदा रात्रि में गुरु को सर्प के काटने से जब जहर चढ़ा, तब गुरुने संघ को विधुर देख के कहा कि दरवाजे में किसी पुरुष के मस्तक पर काठ की भरी में विषापहार एक वेलडी आवेगी। वो लड़ी घस के डंक में देनी, उस से जहर उतर जायगा। संघने तैसे ही करा, गुरुजी राजी हो गये। पीछे तिस दिन से जावजीव छ विगय का त्याग करा, और सदा जुवार की रोटी नीरस जान के खाते रहे। श्री धर्मघोपसूरिजी के करे ये ग्रंथ हैं:-१. संघाचारभाप्यवृति, 2. सुअघम्मेतिस्तव, 3. कायस्थिति भवस्थिति, 4. चौवीस तीर्थंकरों के चौवीस स्तवन, तथा 5. लस्तागर्मेत्यादिस्तोत्र, 6. देवे+रनिगमिति श्लेषस्तोत्र, 7. यूयं युवा त्वमिति श्लेषस्तुतियां, 8, जयवृष मेत्यादि स्तुति / यह जयवृषभेत्यादि स्तुति करने का यह निमित्त था कि एक मन्त्रीने आठ यमक काव्य करके कहा कि, ऐसे कान्य अब कोई नहीं बना सकता, तव गुरुने कहा कि नास्ति नहीं / तव तिसने कहा तो हम को कर दिखलाओ। तब गुरुजीने जयवृषमेत्यादि छ स्तुति एक रात्रि में बना