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________________ सप्तम परिच्छेद न निज्झाए नारी वा सुमलंकियं " अर्थात् स्त्री के चित्राम वाली भीत के देखने से भी विकार उत्पन्न होता है। यह बात तो प्रगट प्रसिद्ध है, कि रागी की मूर्ति देखने से राग उत्पन्न होता है, तथा कोक शास्त्रोक्त स्त्री पुरुष के विषय सेवन के चौरासी चिन्हों को देखने से तत्काल विकार उत्पन्न होता है। ऐसे ही श्री वीतराग की निर्विकार स्थापना रूप शांत मुद्रा को देखने से मन में निर्विकारता और शांत भाव उत्पन्न होता है । परन्तु ऐसा नाम लेने से नहीं होता है। प्रश्नः-जैसे किसी स्त्री के भर्ता का नाम देवदत्त है, सो जब देवदत्त मर गया, तब उसकी स्त्रीने अपने भरतार देवदत्त की मूर्ति बना कर रख ली, परन्तु उस मूर्ति से उस स्त्री का सुहाग तथा संतानोत्पत्ति और कामेच्छा की पूर्ति नहीं होती है। इसी तरे भगवान् की मूर्ति से मी कुछ लाम नहीं है। उत्तरः-देवदत्त की स्त्री देवदत्त के मरे पीछे आसन विछाय कर देवदत्त के नाम की माला फेरे, तब उस स्त्री का सुहाग नहीं रहता, तथा भरतार का नाम लेने से संतानोत्पत्ति भी नहीं होती, तथा कामेच्छा भी पूरी नहीं होती । इसी तरे यदि कहेंगे तब तो भगवान् के नाम लेने से उपलक्षणमेतदनलकृता च न निरीक्षेत् । कश्चिद्दर्शनयोगेऽपि भास्करमिव आदित्यमिव दृष्ट्वा दृष्टि समाहरेत्, दागेव निवर्तयेदिति सूत्रार्थः । [दशव० टी०, भ. ८, उ० २, गा० ५४]
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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