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________________ जैन तत्त्वादर्श प्रश्नः -- जैसे पत्थर की गाय से दूध की गरज़ पूरी नहीं होती है, ऐसे ही प्रतिमा से भी कोई गरज़ पूरी नहीं होती, तो फिर प्रतिमा को क्यों मानना चाहिये ! उत्तर:- जैसे कोई पुरुष सुख से गौ, गौ, कहता है । तो क्त्या उसके इस प्रकार कहने से उसका बरतन दूध से भर जाता है ! अर्थात् नहीं भरता है। ऐसे ही परमेश्वर के नाम लेने और जाप करने से भी कुछ नहीं मिलता, तब तो परमेश्वर का नाम भी न लेना चाहिये । प्रश्नः - परमेश्वर का नाम लेने से तो हमारा अंतःकरण शुद्ध होता है। उत्तर:- ऐसे ही श्री जिनप्रतिमा के देखने से भी परमेश्वर के स्वरूप का बोध होता है, तातें अंतःकरण की शुद्धि यहां भी तुल्य ही है । प्रश्नः --- जब कि परमेश्वर के नाम लेने से पुण्य होता है, तो फिर प्रतिमा काहे को पूजनी ! उत्तरः--- नाम से ऐसे शुद्ध परिणाम नही होते जैसे कि स्थापना के देखने से होते हैं। क्योंकि जैसे किसी सुन्दर यौवनवती स्त्री का नाम लेने से राग तो जागता है, परन्तु जब उस सुन्दर यौवनवती स्त्री की मूर्ति प्रगट सर्वाकार वाली सन्मुख देखें, तब अधिकतर विषयराग उत्पन्न होता है इसी वास्ते श्री दशवैकालिक सूत्र में लिखा है- " *चितमिति * चित्रगतां स्त्रियं न निरीक्षेत्, न पश्येत् नारी वा सचेतनामिव स्वलंकृर्ता
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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