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________________ सप्तम परिच्छेद उत्तर:-हे भव्य ! तू किसी शास्त्र को परमेश्वर का रचा हुआ मानता है, या कि नहीं ! जेकर शास्त्र को परमेश्वर की वचन मानता है, तथा उस को सच्चा और संसार समुद्र से पार उतारने वाला मानता है। तो फिर जिनप्रतिमा के मानने में क्यों लज्जा करता है ! क्योंकि जैसा शास्त्र नडरूप है, अर्थात् उस में स्याही अरु कागज़ को वर्ज कर और कुछ भी नहीं है, तैसी जिनप्रतिमा भी है । जेकर कहोगे कि काग्रजों पर तो स्याही के अक्षर संस्थान संयुक्त लिखे जाते हैं। अतः उनके वाचने से परमेश्वर का कहना मालूम हो जाता है, तो इसी तरे परमेश्वर की मूर्ति को देखने से भी परमेश्वर का स्वरूप मालूम होता है। प्रश्नः-प्रतिमा के देखने से अर्हत के स्वरूप का तो स्मरण हो आता है, परन्तु प्रतिमा की भक्ति करने से क्या लाम है। उत्तर:-शास्त्र के श्रवण करने से परमेश्वर के वचन तो मालम हो गये, तो भी भक्त जन जैसे शास्त्र को उच्च स्थान में रखते हैं, तथा कोई शिर पर ले कर फिरते हैं, कितनेक गले में लटकाये रखते हैं, और कितनेक मंजी पर, कितनेक चौकी आदि पर सुन्दर सुन्दर: रुमालों में लपेट कर रखते है, और नमस्कारादि करते हैं, ऐसे ही जिनप्रतिमा की भक्ति, पूजा मी जान लेनी।
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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