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________________ २ जैनतस्वादर्श मेद हैं- एक व्यवहार श्रद्धा, दूसरी निश्चय श्रद्धा । इन दोनों में प्रथम व्यवहार श्रद्धा का स्वरूप लिखते हैं । व्यवहार श्रद्धा में देव तो श्री अरिहंत है, जिस का स्वरूप प्रथम परिच्छेद में लिख आये हैं, सो चार निक्षेप तथा सर्व तहां से जान लेना । तथा तिस अरिहंत मूर्तिपूजन के चार निक्षेप अर्थात् स्वरूप हैं, सो यहां पर कहते हैं - १. नामनिक्षेप, २. स्थापनानिक्षेप, ३. द्रव्यनिक्षेप, ४. भावनिक्षेप हैं । इन चारों का स्वरूप विस्तार पूर्वक देखना होवे, तदा विशेषावश्यक देख लेना । तिन में प्रथम नाम अर्हत, सो " नमो अरिहंताणं " ऐसा कहना । इस पद का जाप करके अनेक जीव संसार समुद्र को तर गये हैं । तथा दूसरा स्थापनानिक्षेप, सो अरिहंत की प्रतिमा अर्थात् समस्त दोषयुक्त चिन्हों से रहित, सहजसुभग, समचतुरस्रसंस्थान, पद्मासन, तथा कायोत्सर्गमुद्रारूप जिनबिंच जानना | तिस को देख कर, तिस की सेवा पूजन करके अनंत जीव मोक्ष को प्राप्त हुए हैं । प्रश्नः - अरिहंत की प्रतिमा को पूजना, उसको नमस्कार करना, और स्थापना निक्षेप मान कर उसको मुक्ति दाता समझना, यह केवल मूर्खता के चिन्ह हैं । जडरूप प्रतिमा क्या दे सकती है ? * यह नमस्कार मन्त्र का प्रथम पद है, और श्री कल्पसूत्र तथा भगवती सूत्र के आरम्भ में आया है ।
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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