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________________ २०८ जैन तत्त्वादर्श , ने भी कायोत्सर्ग थुइ, आदि करी चैत्यवंदना करी है, ऐसा उल्लेख है । चैत्यवंदना तीन तरह की भाष्य में कही है, सो कहते हैं । एक तो जघन्य चैत्यवंदना, सो अंजलि बांध कर शिर नमा कर प्रणाम करना, यथा 'नमो अरिहंताणं ' इति । अथवा एक श्लोकादि पढ़ के नमस्कार करना, अथवा एक शक्रस्तव पढे, तो जघन्य चैत्यवंदना होवे । दूसरी मध्यम चैत्यवंदना, सो चैत्यस्तवदंडक युगल ' अरिहंतचेइयाणं इत्यादि कायोत्सर्ग के पीछे एक स्तुति कहनी, यह मध्यम चैत्यवंदन है । अरु तीसरा उत्कृष्ट चैत्यवंदन, सो पञ्चदंड १. शक्रस्तव, २. चैत्यस्तव, ३. नामस्तव, ४. श्रुतस्तव, ५. सिद्धस्तव, प्रणिधान, जयवीयराय, इत्यादि यह सर्व उत्कृष्ट चैत्यवंदना है । तथा कोई आचार्य का ऐसा मत है कि, एक शक्रस्तव करी जघन्य चैत्यवंदना होती है, दो तीन शक्रस्तव करी मध्यम चैत्यवंदना होती है, तथा चार अथवा पांच शक्रस्तव करी उत्कृष्ट चैत्यवंदना होती है। इसकी विधि चैत्यवंदन भाष्य से जान लेनी । ra यह चैत्यवंदना नित्य प्रति सात वार करनी, महानिशीथ में साधु को कही है, को भी उत्कृष्ट प्रतिक्रमण में, तथा श्रावक । यथा— एक पहिले करनी, सात वार करनी कही है दूसरी मंदिर में, तीसरी आहार करने से चौथी दिवसचरिम करते, पांचमी देवसी छट्ठी सोती वक्त, और सातमी सोकर उठे पडिक्कमणे में, उस वक्त, यह
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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