________________
t
नवम परिच्छेद
૨૦૨
सात वार चैत्यवंदन साधु को करनी कही है। तथा जो श्रावक आठों पहर में प्रतिक्रमण करता होवे, वो तो निश्चय से सात बार चैत्यवंदन करे, दो प्रतिक्रमण में दो चैत्यवंदन करे, तीसरी सोते वक्त, चौथी उठते वक्त, तथा तीन काल पूजा करने के पीछे तीन बार, एवं सात बार श्रावक चैत्यवंदन करे । तथा जो श्रावक एक ही वार पडिक्कमणा करे, सो छ वार चैत्यवंदन करे । तथा जो पडिकमणा न करे, सो पांच वार चैत्यवंदन करे । तथा जो सोते वा उठते समय भी चैत्यवंदन न करे सो तीन वार करे । नेकर नगर में बहुत जिनमंदिर होवें, तदा सात से अधिक भी करे । तथा जेकर त्रिकाल पूजा न कर सके, तो त्रिकाल देववंदना करे । क्योंकि महानिशीथ में लिखा है कि, जिसको गुरु प्रथम जैनमत की श्रद्धा करावे, उसको प्रथम ऐसा नियम करावे कि, सवेरे के वक्त जिनप्रतिमा का दर्शन करे विना पानी भी नहीं पीना, तथा मध्यान्ह काल में जहां तक देव - जिन प्रतिमा अरु साधुओं को वंदना न करे, तहां तक भोजनक्रिया न करे । तथा सन्ध्या के समय चैत्यवंदन करे बिना शय्या पर पग न देवे ।
तथा गीत, नृत्य, जो अग्रपूजा में कहे हैं, सो भावपूजा में भी बन सकते हैं । सो गीत, नृत्य, मुख्यवृत्ति करके तो श्रावक आप करे, जैसे निशीथचूर्णी में उदयनराजा की रानी प्रभावती का कथन है । तथा पूजा करने के अवसर में