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________________ सप्तम परिच्छेद ३५ अन्याय क्या है ? क्योंकि जब प्राचीनों के किये हुए अर्थ झूठे ठहरेंगे, तब तिन के बनाये हुए वेद भी झुठे ही ठहरेंगे। इस वास्ते जो मतधारी हैं, या तो उनको अपने प्राचीनों के कथन करे हुए अर्थ मानने चाहिये, नहीं तो उस मत को अरु उस शास्त्रों को छोड़ देना चाहिये । मत के इस वास्ते मेरी ऐसी श्रद्धा है, कि जो जैन मत में प्रमाणिक अरु पंचांगीकारक आचार्य लिख गये हैं, उस के अनुसार ही हम को कथन करना चाहिये, परन्तु स्वकपोलकल्पित नहीं । नेकर कोई स्वकपोलकल्पित मानेगा, वो जैनमती कदापि नहीं हो सकेगा, अरु उस की कल्पना भी सर्वथा सत्य नहीं होवेगी। क्योंकि जब सर्व मतों के पूर्वाचार्य झूठे ठहरेंगे, तब नवी कल्पना करने वाले क्योंकर सच्चे बन बैठेंगे ? इस वास्ते पूर्वोक्त प्रश्न का उत्तर पंचांगी के प्रमाण से नहीं दे सकता हूं, क्योंकि - १. शास्त्र बहुत विच्छेद हो गये है । २. आर्यरक्षित सूरि के समय में चारों अनुयोग तोड़ के पृथक्त्वानुयोग रचा गया है । ३. स्कंदिल आचार्य के समय में बारह वर्ष का काल पड़ा था, उसमें शास्त्र कंठ से मूल गये थे। फिर सर्व साधुओं का दक्षिण मथुरा में समाज करके जिस जिस साधु, आचार्य के जिस जिस ' शास्त्र का जो जो स्थल कंठ रह गया, सो सो स्थल एकत्र करके लिखा गया । ४. पीछे देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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