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जैनतत्त्वादर्श नता सिद्ध नहीं होती। इसी वास्ते ईशावास्य उपनिषद् को वर्ज के सर्व उपनिषद, और सर्व ब्राह्मण भाग, तथा सर्व स्मृति, पुराणादि शास्त्र, भाष्य, दीपिकादि मानने छोड़ दिये । उनों ने यह विचार किया है, कि इन सर्व पूर्वोक्त ग्रंथों के मानने से हमारा मत दूसरे मतवाले खंडित कर देवेंगे। क्योंकि ये पूर्वोक्त सर्व ग्रन्थ युक्तिप्रमाण से विकल हैं । अरु प्राचीनों ने जो अर्थ करे हैं, उन में बहुत अर्थ ऐसे है, कि जिन के सुनने से श्रौता जनों को भी लज्जा उत्पन्न होती है। क्योंकि महीधरकृत दीपिका जो वेद की टीका है, उस में मंत्रादिकों के जो अर्थ लिखे हैं, जैसे कि यज्ञपत्नी घोड़े का लिंग पकड़ के अपनी योनि में प्रक्षेप करे, इत्यादि, सो हम आगे लिखेंगे । इत्यादि अर्थों के छोड़ने वास्ते अरु वेदों का खण्डन न हो, इस वास्ते स्वकपोलकल्पित भाष्य बना कर मानो अंग्रेजों के चालचलन और इंजील के मतानुसार अर्थ किये गये है। परन्तु उन को बुद्धिमान तो कोई भी मानता नहीं है। तथा जो मानते हैं, वो कुछ जानते नहीं
है। क्योंकि जब पूर्व के ऋषि, मुनि, पंडित झूठे हैं, अरु - उन के किये हुये अर्थ असत्य हैं, तो अब के बनाये हुये कदापि
सत्य नहीं हो सकेंगे? जो जड में ही झूठे हैं वे नवीन रचना से कदापि सत्य न होवेंगे । इस वास्ते अपनी बुद्धि का विचार सत्य मानना, अरु प्राचीन उन वेदों के मानने वालों का संप्रदाय झूठा मानना, इस से अधिक निविवेक और