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नवम परिच्छेद
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जेकर देना न उतरे, तब उसका नौकर रहकर भी देना उतार देवे । नही तो भवांतर में उसका कर्मकर-चाकर, महिष, बैल, ऊंट, खर, खच्चर, घोड़ा, प्रमुख बन कर देना पड़ेगा । लेनेवाला भी जब जान लेवे कि, यह देने में समर्थ नहीं, तब बिलकुल मांगना छोड़ देवे। ऐसे कहे कि, जब तू देने में समर्थ होवेगा तब दे देना, नहीं तो यह धन मैं कुछ अपने धर्म में लगाया, वही में लिख लेता हू, तेरे से मैं कुछ नही लेऊंगा ।
श्रावक को मुख्यवृत्ति से तो धर्मी जनों से ही व्यवहार करना चाहिये, क्योंकि दोनों पासे धन रहेगा तो धर्म में लगेगा | अरु किसी म्लेच्छ पास घन रह जावे, तदा व्युत्सर्जन कर देवे । व्युत्सर्जन करे पीछे जेकर वो म्लेच्छ फिर धन दे देवे, तदा वो धन धर्म में खरचने के वास्ते संघ को सौंप देवे, अरु व्युत्सर्जन करा है, ऐसा भी कह देवें । ऐसे ही जो कोई वस्तु खोई जावे, अरु ढूंढने से न मिले, तो तिस वस्तु का भी व्युत्सर्जन कर देवे। पीछे कदाचित् अपने पास धनहानि हो जावे, घन की अप्राप्ति हो जावे, तो भी खेद न करे; क्योंकि खेद का न करना, यही लक्ष्मी का मूल कारण है ।
बहुत धन जाता रहे, तो भी धर्म करने में आलस न करे/ क्योंकि संपदा अरु आपत् बड़े आदमी को ही सदा एक सरीखे दिन किसी के नहीं जाते हैं,
होती है ।
पूर्व जन्म