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जैनतत्त्वादर्श
जन्मांतर के पुण्यपापोदय से संपदा, विपदा होती है, इस वास्ते धैर्य का अवलंबन करना श्रेष्ठ है । यदा अनेक उपाय करने से भी दरिद्र दूर न होवे, तदा किसी भाग्यवान् का आधार लेवे, अर्थात् सांजी वन के व्यवहार करे; क्योंकि काठ के संग से लोहा भी तर जाता है ।
किसी के साथ
जेकर बहुता धन हो जावे, तदा अभिमान न करे, क्योंकि लक्ष्मी के साथ पांच वस्तु होती हैं - १. निर्दयत्व, २. अहं - कार, ३. तृष्णा, ४. कठिन वचन बोलना, ५. वेश्या, नट, विट, नीच पात्र, वल्लभ होते हैं । इस वास्ते बहुत धन हो जावे, तो इन पांचों को अवकाश न देवे । लड़ाई न करे, जबरदस्त के साथ तो विशेष कर के लड़ाई नहीं करे । तथा-- १. धनवंत, २. राजा, ३. पक्षवाला, ४. चलवान्, ५. दीर्घरोषी, ६. गुरु, ७. नीच, ८. तपस्वी, इन आठों के साथ वाद न करे । जहां तक नरमाई से काम बने, तहां तक कठिनाई न करे । लेने देने में भ्रांति मूलादिक से अन्यथा हो जावे, तो विवाद न करे, किंतु न्याय से झगड़ा मिटावे । न्याय करनेवाले को भी निर्लोभी पक्षपात रहित होना चाहिये । तथा जिस वस्तु के महंगे होने से प्रजा को पीड़ा होवे ऐसी वस्तु के महंगे होने की चिंता न करे । परन्तु कर्मयोग से दुर्भिक्षादिक हो जावे, तब भी सौदे में दुगने तिगने लाभ हो जावे, तदा अन्न में अधिक न लेवे ।
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