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जैनतस्थादर्श जनों को सम्मान से वश करे, तथा स्त्री को प्रेम से वश करे, तथा चाकरों को दान देने से वश करे, तथा दाक्षिज्यता करके इतर लोगों का मन हरे, तथा किसी जगे अपने कार्य की सिद्धि करने के वास्ते दुष्ट जनों को भी अगुवा-अगाडी करे। तथा जिस जगे प्रीति होवे, तहां लेने देने का व्यापार न करे, यह कथन सोमनीति में भी है। ___ तथा साक्षी के बिना मित्र के घर में भी धनादिक न रखना चाहिये, क्योंकि लोम बड़ा दुर्दात है। तथा जो धन रखनेवाला मर जावे तो वो धन उसके पुत्रादि को दे देना चाहिये । जेकर धन रखनेवाले का कोई भी संबंधी न होवे, तब वो धन सर्व लोगों के समक्ष धर्मस्थान में लगा देवे। तथा श्रावक, देवगुरु, चैत्य, जिनमन्दिर की चाहे सच्ची, चाहे झूठी भी शपथ अर्थात् सौगंद न खावे । तथा दूसरों का साक्षी भी न बने । कार्पासिक ऋषि कहते हैं
अनीश्वरस्य द्वे भायें, पथि क्षेत्रं द्विधा कृषिः । प्रातिभाव्यं च साक्ष्यं च, पंचानाः स्वयं कृताः ॥
तथा श्रावक मुख्यवृत्ति से तो जिस गाम में रहे, तहां ही व्यापार करे, क्योंकि ऐसे करने से कुटुम्ब का अवियोग तथा घर का कार्य अरु धर्मकार्यादिक सर्व बने रहते हैं । कदापि अपने गाम में निर्वाह न होवे, तदा निकट देशांतर में व्यवहार करे। जहां से कोई योग्य काम पड़े