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नवम परिच्छेद तो शीघ्र घर में आजावे। ऐसा कौन पामर है कि जिस का स्वदेश में निर्वाह होवे, तो मी परदेश में नावे ? कहा भी है
जीवंतोऽपि मृताः पंच, श्रूयते किल भारत !! दरिद्रो व्याधितो मूर्खः, प्रवासी नित्यसेवकः ।।
लेकर निर्वाह न होवे, तदा आप तथा पुत्रादिकों को परदेश में न भेजे, किंतु सुपरीक्षित गुमास्ते को भेजे। जेकर स्वयमेव देशांतर में जावे, तदा भला मुहूर्त शकुन निमित्त देख के अरु देव गुरु को वंदना करके, मंगलपूर्वक भाग्यवान् साथ के बीच में, निद्रादि प्रमाद वर्न के कितनेक अपने ज्ञातियों को साथ लेकर जावे। क्योंकि भाग्यवान् के साथ जाने से विन्न टल जाता है। तथा लेना, देना, गड़ा हुवा धन, सर्व, पिता, भाई, पुत्रादिकों को कह जावे । अपने सम्बंधियों को भली शिक्षा दे जावे । बहुमानपूर्वक सर्व को बोला के जावे। परन्तु जो जीवने की इच्छा होवे, तो देव गुरु का अपमान करके, किसी को निर्मर्स के, स्त्री आदि को ताड़ना कूदना करके, बालक को रुदन करवा करके न जावे । कदापि कोई पर्व महोत्सवादि का दिन निकट होवे, तदा उत्सव करके जावे । यतः