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नवम परिच्छेद
૨૭ लोक है । अरु भाव पूजा का फल अंतर्मुहूर्त में मोक्ष है। __द्रव्य पूजा में यद्यपि पट्काय की किंचित् विराधना होती है, तो भी कूप के दृष्टांत से वह गृहस्थ को अवश्य करने योग्य है । तात्पर्य कि करनेवाले अरु देखनेवालों को गिनती रहित पुण्य बंधन का कारण होने से करने योग्य है। जैसे नवे गाम में स्नान, पानादि के वास्ते लोक कूआं खोदते हैं।
और उस समय तिन को प्यास, श्रम, अरु कीचड़ से मलिन होना पड़ता है, परन्तु कुवे के जल निकलने से तिन की तथा औरों की तृपादि, अगला पिछला सर्व मैल दूर हो जाता है, अरु सर्वांगीण सुख हो जाता है। ऐसे ही द्रव्य पूजा में जान लेना । यह कथन आवश्यकनियुक्ति में है । तथा और जगे भी लिखा है
आरंमपसचाण, गिहीणछजीववह अविरयाणं । मवअडविनिवडियाणं, दवत्थओ चेव आलंवो ॥ स्थेयो वायुबलेन नितिकरं निर्वाणनिर्घातिना, स्वायत्तं बहुनायकेन सुबहुस्वल्पेन सारं परम् । निसारेण धनेन पुण्यममलं कृत्वा जिनाम्यर्चनं, यो गृह्णाति वणिक् स एव निपुणो वाणिज्यकर्मण्यलम्॥
* अकसिणपवत्तगाणं, विरयाविरयाण एस खल जुत्तो ।
संसारपयणुकरणे दव्वत्थए कूवदिलुतो ॥