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जैनतश्वादर्श
भावना करके आदर संयुक्त जिनप्रतिमा की जो पूजा, सो आभोगद्रव्य पूजा है । इस से चारित्र का लाभ होता है, कर्म का नाश होता है । इस वास्ते बुद्धिमान् ऐसी पूजा अवश्य करे । तथा जो पूजा की विधि जानता नहीं तथा श्रीजिनराज के गुण भी नहीं जानता, सो दूसरी अनाभोग पूजा है । यह शुभ परिणाम पुण्य का कारण, बोधिलाभ का हेतु है और पापक्षय करने का साधन है । उस पुरुष का जन्म भी धन्य है, आगामी काल में उसका कल्याण है, यद्यपि वो वीतराग के गुण नहीं भी जानता, तो भी भक्ति प्रीति का उल्लास उसके अन्दर अवश्य उछलता है । अरु जिस पुरुष को अरिहंत बिंब में द्वेष है, वो पुरुष भारी-कर्मी तथा भवामिनंदी है। जैसे रोगी को अपथ्य में रुचि अरु पथ्य में द्वेष होवे, तो उसका वह मरण का समय होता है । ऐसे ही जिनबिंब में जिसको द्वेष है, तिसको भी दीर्घ- संसारी
जानना ।
यहां जो भाव पूजा है, सो श्रीजिनाज्ञा का पालना है । जिनाज्ञा दो प्रकार की है : एक अंगीकार करने रूप, दूसरी त्यागने रूप । तहां सुकृत का अंगीकार करना, अरु निषेघ का त्याग करना । परन्तु स्वीकार - पक्ष से परिहार - पक्ष बहुत श्रेष्ठ है। क्योंकि जो निषिद्ध आचरण करता है । उसका सुकृत भी बहुत गुणदायक नहीं होता है । जेकर दोनों बातें होवें, तब तो पूर्ण फल है। द्रव्य पूजा का फल अच्युत देव