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नवम परिच्छेद
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सिद्धांत को जानता नहीं। क्योंकि जैनशास्त्र के ज्ञाता तो ऐसे कहते हैं कि, जो न करे, उसको गुरु प्रायश्चित्त आता है, अरु जो अविधि से करे, उसको लघु प्रायश्चित्त आता है । इस वास्ते धर्म जरूर करना चाहिये । अरु विधिमार्ग की अन्वेषणा करनी । यह तत्त्व है, यही श्रद्धावन्त का लक्षण है | सर्व कृत्य करके अविधि, आशातना के निमित्त मिध्यादुष्कृत देना ।
अंग, अग्रादि तीनों पूजा के फल, शास्त्र में ऐसे लिखते हैं । विन उपशांत करनेवाली अंगपूजा है, तथा मोटा अभ्युदय —– पुण्य के साधनेवाली अग्रपूजा है, तथा मोक्ष की दाता भावपूजा है । पूजा करनेवाला संसार के प्रधान भोगों को भोग कर पीछे सिद्धपद को पाता है । क्योंकि मन शांत होता है, अरु मन की शांति से होता है, अरु शुभध्यान से मोक्ष होता हैं, सुख है।
पूजा करने से
पूजाफल
उत्तम शुभ ध्यान
मोक्ष हुए अबाध
तथा श्रीजिनराज की भक्ति पांच प्रकार से होती है । पुष्पाद्यच तदाज्ञा च तद्रव्यपरिरक्षणम् । उत्सवास्तीर्थयात्रा च, भक्तिः पञ्चविधा जिने ॥
द्रव्यपूजा आभोग तथा अनाभोग भेद से दो प्रकार की
- है । तिसमें श्रीवीतराग देव के गुण जान कर वीतराग की
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