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जैनतत्त्वादर्श जीवाण बोहिलामो, सम्महिट्ठीण होइ पिअकरणं । आणा जिणिदभची, तित्थस्स पभावणा चेव ॥
इस वास्ते इसमें अनेक गुण हैं, ताते चैत्यकार्य करे। यह कथन दिनकृत्य सूत्र में है-दश त्रिक, पांच अभिगम, इत्यादि विधि प्रधान ही सर्व देवपूजा वंदनकादि धर्मानुष्ठान का महाफल होता है; अन्यथा अल्प फल है। तथा अविधि से करने पर उपद्रव भी हो जाता है । उक्तं च
धर्मानुष्ठानवैतथ्यात्प्रत्यवायो महान् भवेत् । रौद्रदुःखौघजननो, दुष्प्रयुक्तादिवौषधात् ।।
तथा अविधि से चैत्यवंदनादि करनेवाले के वास्ते आगम में प्रायश्चित्त कहा है। महानिशीथ के सातमे अध्ययन में अविधि से चैत्यवन्दना करे, तो प्रायश्चित्त कहा है। देवता, विद्या, मन्त्र भी विधि से ही सिद्ध होते हैं।
यदि कोई कहे कि, विधि न होवे, तब न करना ही श्रेष्ठ है ! यह कहना सर्वथा अयुक्त है । यदुक्तम्
अविहिकया वरमकयं, असूयवयण भणंति समयन्नू । पायच्छित्तं अकए, गुरु वितह कए लहुअं॥
अर्थः- अविधि करने से न करना अच्छा है, ऐसे जो कहता है, सो असूया वचन हैं। यह कहनेवाला जैन