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दशम परिच्छेद
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तथा गुरु के योग मिले जघन्य से भी एक वर्ष में एक वार आलोचना लेवे । अपने करे हुए आलोचना विधि सर्व पाप को गुरु के आगे कह देवे, पीछे गुरु जो प्रायश्चित्त देवे, सो लेवे । फिर उस पाप को न करे, तिसका नाम आलोचना लेनी है । श्राद्धजितकल्पादि में इस प्रकार विधि लिखी है। पक्ष पीछे चार मास पीछे, एक वर्ष पीछे, उत्कृष्ट बारां वर्ष पीछे, निश्चय ही आलोचना करे । अपना शल्य काढ़ने को क्षेत्र से सात सौ योजन, अरु काल से वारां वर्ष तक गीतार्थ गुरु का अन्वेषण करे । तथा जिस गुरु के आगे आलोचना करे, सो गुरु गीतार्थ होवे, मन, वचन, काया करके स्थिर होवे, चारित्रवान् होवे, आलोचना ग्रहण में कुशल होवे, प्रायश्चित्त का जानकार होवे, विषाद रहित होवे, ऐसा गुरु होवे, सो आलोचना प्रायश्वित देने योग्य है ।
तिन में गीतार्थ उसको कहते हैं कि, जो १. निशी - यादि छेद शास्त्रों का मूलपाठ, निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णी, इन का जानकार होवे । तथा ज्ञानादि पंचाचार युक्त होवे । तथा २. आधारवंत - आलोचित पाप का धारनेवाला होवे । ३. आगमादि पांच व्यवहार का जाननेवाला होवे । तिस में भी इस काल में तो नीतव्यवहार मुख्य है, तिसका जाननेवाला होवे । ४. प्रायश्वित के आलोचक की लज्जा को दूर करानेवाला होवे | ५. आलोचक की शुद्धि करनेवाला