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जैनतत्त्वादर्श श्रुतपूजा पूजा तो प्रतिमास शुक्लपंचमी के दिन श्रावक
को करनी योग्य है। जेकर शक्ति न होवे, तो भी वर्ष में एक बार तो अवश्य करे। इसका विस्तार जन्मकृत्य में ज्ञान भक्तिद्वार में लिखेंगे। तथा पंचपरमेष्ठी नमस्कार, आवश्यकसूत्र, उपदेशमाला,
उत्तराध्ययनादि ज्ञान दर्शन का तप, इत्यादि उद्यापन में जघन्य एक वार उद्यापन करे, जिस से
लक्ष्मी सफल होवे । जब जप, तप का उद्यापन करे, तब चैत्य पर कलशारोपण करे, फल चढावे, अक्षत पात्र के मस्तक पर अक्षत देवे । जैसे भोजन के ऊपर तांबूल देते हैं, इसी तरे यह भी जान लेना। यह उपधान, उद्यापन विधि शास्त्रांतर से जान लेनी । तथा तीर्थ की प्रभावना के वास्ते बाजे-गाजे और प्रौढा
डंबर से गुरु का प्रवेश करावे, यह व्यवहार प्रभावना भाष्य में कहा है । क्योंकि इस से जिनमत
की प्रभावना होती है । तथा यथाशक्ति श्रीसंघ का बहुमान करना, तिलक करना, चन्दन, बरास, कस्तूरी प्रमुख से विलेपन करे, तथा सुगन्धित फूल, भक्ति से नालियरादि विविध तांबूल प्रदानरूप भक्ति करे । क्योंकि शासन की उन्नति करने से तीर्थकर गोत्र उपार्जन करता है, यह कथन ज्ञातासूत्र में है।