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नवम परिच्छेद
१७३ श्रावक को सवेरे उठ करके चौदह नियमों को धारण
करना चाहिये। तिन का स्वरूप ऊपर लिख व्रतमंग का विचार आये हैं। तथा विवेकी पुरुष प्रथम सम्यक्त्व
पूर्वक द्वादश व्रत, विधिपूर्वक गुरु के मुख से धारण करे । अरु विरति जो पलती है, सो अभ्यास से पलती है। इस वास्ते धर्म का अभ्यास करना चाहिये। बिना अभ्यास के कोई क्रिया भी अच्छी तरे नहीं करी जाती है । ध्यान मौनादि सर्व अभ्यास करने से दुःसाध्य नहीं। जो जीव इस जन्म में अच्छा वा बुरा जैसा अभ्यास करता है, सोई प्रायः अगले जन्म में पाता है। तथा पंचमी, अष्टमी, चतुर्दशी आदि के दिन में तप आदि नियम जो जो धर्मी पुरुषने अंगीकार किया है, उस में तिथ्यंतर की प्रांत्यादि करके जो सचित्त जलादि पान, तंवोल-भक्षण, कितनाक भोजन भी कर लिया है, पीछे से ज्ञान हुआ कि आज तो तप का दिन था ! तव जो कुछ मुख में होवे, उसको राखादिक में गेर देवे, और प्राशुक पानी से मुखशुद्धि कर तप करे हुए की तरे रहे, तो नियम, भंग नहीं होता है। अरू नेकर संपूर्ण भोजन करा पीछे जान पड़े कि आज तप का दिन है, तव अगले दिन दंड के निमित्त वह तप करे । समाप्ति होने पर पोरिसी, एकाशनादि तप अधिक करे । अरु जेकर तप का दिन जान कर एक दाना मी खावे, तो व्रतमंग हो जाता है। जो व्रत का मंग जान करके करना है, 'सो नर