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________________ १७४ जैनतत्वादर्श कादिक का हेतु है। तथा जेकर तप करे पीछे गाढ़ा मांदा हो जावे, अथवा मूतादि दोष से परवश हो जावे, अथवा सादिक काटे, ऐसी असमाधि में तप करने में समर्थ न होवे, तो भी चार आगार उच्चारण करने से व्रतभंग नहीं होता है। ऐसे सर्व नियमों में जान लेना । उक्तं चः वयभंगे गुरुदोसो, थोवस्सवि पालणा गुणकरी य । गुरु लाघवं च नेयं, धम्मम्मि अओ अ आगारा ॥ [पंचाशक ५-६५] अर्थ-व्रत भंग करने से महा दूषण होता है, अरु जो पालन करे, तो थोड़ा व्रत भी गुणकारी है, इस वास्ते गुरु लघु जान कर ही धर्म में भगवान् ने आगार कहे हैं। अब नियम ग्रहण करने की रीति कहते हैं । प्रथम तो मिथ्यात्व त्यागने योग्य है। तिस पीछे नित्य यथाशक्ति एक, दो, तीन वार जिनपूजा, जिनदर्शन, सम्पूर्ण देववंदन, चैत्यवंदन करे । ऐसे ही गुरु का योग मिले तो दीर्घ अथवा लघु वंदन करे । जेकर गुरु हाज़िर न होवे, तब धर्माचार्य का नाम लेके वंदना करे। तथा नित्य वर्षा ऋतु में-चौमासे में पांच पर्व के दिन अष्टप्रकरी पूजा करे। जहां लग जीवे, वहां लग नवा अन्न, नवा फल, पक्वान्नादिक देव को चढाये विना खावे नहीं। नित्य नैवेध, सोपारी, बदामादि देव के आगे चढ़ावे। तथा तीन चौमासे-संवत्सरी, दीवाली प्रमुख
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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