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नवम परिच्छेद
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१७५ में चावलों के अष्ट मंगल भर के ढोवे । नित्य अथवा पर्व के दिन तथा वर्ष में खादिम, स्वादिम आदि सर्व वस्तु देव, गुरु को दे कर भोजन करे । प्रतिमास, प्रतिवर्ष, महाध्वजादि को उत्सव आडंबर से चढ़ावे । स्नात्रमहोत्सव अष्टोत्तरी पूजा, रात्रिजागरण करे । नित्य चौमासे आदिक में कितनीक वार जिनमन्दिर, धर्मशाला प्रमार्जन करे, देहरा समरावे, पौषधशाला लीपे । प्रतिवर्ष प्रतिमास जिनमन्दिर में अंगलहना तथा दीपक के वास्ते पूनी देवे, दीवे के वास्ते तेल देवे, चन्दनखण्डादि मन्दिर में देवे । पौषधशाला में मुखबखिका, जपमाला पूंछना, चरवला, कितनेक वस्त्र, सूत, कंबली, ऊनादि देवे। वर्ष में श्रावकों के बैठने के वास्ते कितनेक पाट, चौकी प्रमुख देवे । जेकर निर्धन होवे, तो भी वर्ष दिन पीछे सूत डोरा, अट्टी प्रमुख दे कर संघपूजा करे। कितनेक साधर्मियों को शक्ति के अनुसार भोजन दे के साधर्मिवात्सल्यादि करे । दररोज कितनेक कायोत्सर्ग करे । स्वाध्याय करे । नित्य जघन्य नमस्कार सहित प्रत्याख्यान करे । रात्रि में दिवसचरम प्रत्याख्यान करे, दोनों वक्त प्रतिक्रमण करे । यह करनी प्रथम कर लेवे, तो पीछे से बारां व्रत स्वीकार करे । तिन व्रतों में सातमे व्रत में सचिव, अचित अरु मिश्र वस्तु का स्वरूप अच्छी तरें जानना चाहिये ।
जैसे प्रायः सर्व धान्य, अन्न, अरु धनिया, जीरा, अजवा