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जैनतत्त्वादर्श
अग्नि देवता की साक्षी से पाणिग्रहण करना, तिसको विवाह कहते हैं । सो विवाह लोक में आठ प्रकार का – १० अलंकार करके कन्या देवे, तिसका नाम ब्राह्मविवाह है । २. कन्या के पिता को धन देके जो कन्या विवाहे, तिसका नाम प्राजापत्य विवाह है । इन दोनों विवाह की विधि आचारदिनकर शास्त्र से जान लेनी । ३. बछड़े सहित गोदान - पूर्वक, सो ऋषिविवाह । ४. जो यज्ञ के वास्ते दीक्षा लेवे, उसको जो कन्या देवे, सोई दक्षिणा है, सो देवविवाह है । यह दोनों विवाह लौकिक वेदसम्मत हैं; परन्तु जैनवेद में सम्मत नही हैं। क्योंकि इन दोनों विवाहों के मंत्र, जैनवेद में नहीं हैं, अरु ये दोनों विवाह जैनमतवालों के मत में करने योग्य नहीं हैं । इन पूर्वोक्त चारों विवाहों को लोकनीति में धर्मविवाह कहते हैं । ५. माता पिता की आज्ञा के विना परस्पर स्त्री पुरुष के राग से जो विवाह होवे, तिसको गंधर्व विवाह कहते हैं । ६ किसी काम की प्रतिज्ञा करा के कन्या
देवे, सो आसुर विवाह है । ७. जो जोरावरी से कन्या को ग्रहण करे, सो राक्षस विवाह कहते है । ८. सोती, मदोन्मत्त, बावरी, प्रमादवंत, कन्या को ग्रहण करे, सो पिशाच विवाह है । इन चारों को अधर्म विवाह कहते हैं । जेकर वधू वर की परस्पर रुचि होवे तदा अधर्मविवाह को भी धर्मविवाह
जानना | अच्छी स्त्री का लाभ होना, यह विवाह का फल
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