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जैनतत्वादर्श वास्ते यह संसार से क्योंकर तरेंगे ! जेकर उष्ण जल से स्नान कर लेवें, तो कौनसा महानत मंग हो जाता है !
जेकर धर्म का फल न होवे, तो संसार की विचित्रता कदापि न होवे, इस वास्ते धर्म का फल अवश्यमेव है । तथा जो साधु मलिन वस्त्र रखते हैं, उसका तो फल यह कारण है कि सुंदर वस्त्र रखने से मन शृङ्गार रस को चाहता है, अरु स्त्रिये भी सुन्दर वस्त्र वालों को देख कर उनसे भोग करने की इच्छा करती हैं। इस वास्ते शील पालने वाले साधुओं को शृंगार करना अच्छा नहीं। अरु स्नान जो है, सो काम का प्रथमांग है, इस वास्ते साधुओं को उचित नहीं। अरु कोई कारण पड़ने से साधु हाथ पगादिकों को धो लेवे, तो कुछ दूषण नहीं । अरु साधुओं को अपने शरीर पर ममत्व मी नहीं है । अरु शुचिमात्र स्नान तो साधु करते हैं, परन्तु शरीर के सुख वास्ते तथा शरीर के चमकाने दमकाने के वास्ते नहीं करते हैं। क्योंकि जैनियों की यह श्रद्धा नहीं है, कि जल में स्नान करने से पाप दूर हो जाते हैं। परन्तु जल स्नान से शरीर की मैल दूर हो जाती है, शरीर की तप्त मिट जाती है, आलस्य दूर हो जाता है, परन्तु पाप दूर नहीं होते हैं। जेकर जलस्नान से पाप मिट जावे तो अनायास सर्व की मोक्ष हो जावेगी। ऐसा कौन है, जो जल से स्नान नहीं करता है ! अरु जो साधु को मैला समझना, यही बड़ी मूर्खता है, क्योंकि शरीर के मैले होने से आत्मा मैला नहीं