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सप्तम परिच्छेद जिन धर्म का अच्छी तरे से बोध नहीं है। क्योंकि जैन धर्म वाले भी सर्व दरिद्री अरु पुत्रादि परिवार से रहित नहीं हैं। वैसे ही अन्यमत वाले भी सर्व धनी अरु परिवार वाले नहीं हैं। इस वास्ते सर्व अपने अपने पूर्व जन्म जन्मांतर के करे हुए पुण्य पाप के फल हैं। क्योंकि जो जीव मनुष्य जन्म में सात कुन्यसनी हैं। अरु कसाई, वागुरी-बूचड़ प्रमुख, कितनेक धनी अरु पुत्रादि परिवारवाले हैं अरु कितनेक इस अवस्था से विपरीत हैं। इस वास्ते यही सत्य है कि पूर्व जन्म में करे हुए सुकृत दुष्कृत का फल है, प्रायः इस जन्म के कृत्यों का फल नहीं है । सर्व मतोवाले राजा हो चुके हैं, अरु रंक भी बहुत हैं । इस वास्ते अन्य मत की आकांक्षा न करे। तीसरा वितिगिच्छा अतिचार-सो कोई जीव अपने
पूर्व जन्म के करे हुए पापों के उदय से विचिकित्सा दुःख पाता है, तब ऐसा विचार करे, कि अतिचार मै धर्म करता हूं, तिस का फल मुझे कब
मिलेगा ! अर्थात् मिलेगा कि नहीं ! अरु जो धर्म नहीं करते हैं, वे सुखी हैं, अरु हम तो धर्म करते हैं, तो भी दुःखी हैं। इस वास्ते कौन जाने धर्म का फल होवेगा कि नहीं होवेगा ? तथा साधु के मलिन वस्त्र तथा मलिन शरीर को देख कर मन में जुगुप्सा करे, कि यह साधु अच्छे नहीं हैं, क्योंकि मलिन वस्त्र तथा मलिन शरीर रखते हैं। इस