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________________ सप्तम परिच्छेद ३९ होता है, मैला तो पाप करने से होता है । अरु जगत् व्यवहार में स्त्री से संभोग करने से और किसी मलिन वस्तु का स्पर्श करने से मैलापना भानते हैं। परन्तु साधु तो इन सर्व वस्तुओं का त्यागी है, इस वास्ते मैला नहीं। बल्कि साधुओं को धन्यवाद देना चाहिये, क्योंकि यदि ताप पडता है, लू चलती है, पसीना बहता है, तो भी साधु नंगे पांव अरु नंगा शिर करके चलते हैं, और रात को छते हुए मकान में सोते हैं, पंखा करते नहीं तथा कोमल शय्या पर सोते नहीं, और रात्रि को जल पीते नहीं, दिन में भी उष्ण जल पीते हैं; यह तो बड़ा भारी तप है । परन्तु जो कोई साधु तो बन रहे हैं, अरु जब गरमी लगती है, तब महिष की तरे जल में ना पड़ते है, ऐसे सुखशील तो तर जायेंगे, कि जिनों के किसी बात का नियम नहीं। हाथी, घोड़े, रेल प्रमुख की सवारी करनी; तथा जो सर्व भक्षण करने; घन रखना; मकान बांधने; खेती करनी; गौ, भैस, हाथी, घोड़े, रथ, शस्त्र रखने; छल बल से लोगों के पास से धन लेना; स्त्रियों से विषय सेवन करना अच्छा खाना मांस भक्षण करना, मदिरा पीना; भांग के रगड़े, चरस की चिलमें उडाना; पगों को तथा शरीर को वेश्या की तरे मांजना; चित्त में बड़ा अभिमान रखना; दंड पेलना; गश्त करने जाना; इत्यादि अनेक साधुओं के जो उचित नहीं सो काम करने; फिर श्री श्री स्वामीजी महाराज बन फल हैं, सो "
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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