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________________ १० जैनतत्वादर्श बैठना । हम महंत हैं, हम गद्दीधर हैं, हम भट्टारक हैं, हम श्रीपूज्य हैं, हम जगत् का उद्धार करते हैं, हम बड़े अद्वैत ब्रह्म के वेता हैं, हम शुद्ध ईश्वर की उपासना बताते हैं, मूर्तिपूजन के पाखण्ड का नाश करते हैं। ___ अथ भव्य जीवों को विचार करना चाहिये कि यह पूर्वोक्त कुगुरु क्या जल के स्नान करने से संसार समुद्र से तर जायंगे ! अरु जो जीवहिंसा, झूठ, चोरी, स्त्री, अरु परिग्रह, इन पांचों के त्यागी, शरीर में ममत्व रहित, प्रतिबंध रहित, काम क्रोध के त्यागी, महातपस्वी, मधुकर वृत्ति से मिक्षा लेनेवाले, इत्यादि अनेक गुण से सुशोभित हैं, वे क्या जल में स्नान न करने से पातकी हो जायेंगे ! कदापि न होवेंगे। इस वास्ते साधु को देख के जुगुप्सा न करनी, जेकर करे, तो तीसरा अतिचार लगे। चौथा मिथ्यादृष्टि की प्रशंसारूप अतिचार है। मिथ्या दृष्टि उस को कहते हैं, जो जिनप्रणीत आज्ञा प्रशंसा अतिचार से बाहिर है । क्यों कि सर्वज्ञ के कहे हुए वचन को तो वो मानता नहीं, अरु असर्वज्ञों के कहे हुए शास्त्रों को सच्चा मानता है। उन शास्त्रों में जो अयोग्य बातें कही हैं, उनके छिपाने के वास्ते स्वकपोलकल्पित भाष्य, टीका, अर्थ वना कर के मूर्ख लोगों को बहकाते और गाल बजाते फिरते हैं । और जिन के नियम धर्म कोई नहीं, कृपण पशुओं को मारना जानते हैं, धूर्तपने से
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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