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सप्तम परिच्छेद सच्चा वन कर मूखों को मिध्यात्व के जाल में फंसाते हैं । ऐसे मिथ्यादृष्टि होते हैं । उन की प्रशंसा करनी । तथा जो अज्ञानी जिनाज्ञा से बाहिर हैं, उन को कहना कि ये बड़े तपस्वी है ! महापुरुष है ! बड़े पण्डित हैं ! इन के बराबर कौन है ? इनों ने धर्म की वृद्धि के वास्ते अवतार लिया है । तथा मिथ्यादृष्टि कोई व्रत यज्ञादि करे, तब तिस की प्रशंसा करे, कि तुम बड़ा अच्छा काम करते हो, तुमारा जन्म सफल है, इत्यादि प्रशंसा करे, सो चौथा अतिचार है ।
पांचमा मिध्यादृष्टि का परिचय करना अतिचार है । मिथ्यादृष्टि के साथ बहुत मेलमिलाप रक्खे, एक जगे भोजन और वास करे, इत्यादि है । क्योंकि मिथ्यादृष्टि के साथ बहुत मेल रखने से मिथ्यादृष्टि की वासना लग जाने से धर्म से भ्रष्ट हो जाता है, इस वास्ते मिथ्यादृष्टि का बहुत परिचय करना ठीक नहीं । यह पांचमा अतिचार है ।
अब जब गृहस्थ को सम्यक्त्व देते हैं, तब उस को गुरु छ आगार बतलाते हैं। जेकर इन छ कारणों से तुम को कोई अनुचित काम भी करना पड़े, तो तुम को ये छ आगार रखाये जाते हैं, जिन से तुमारा सम्यक्त्व कलंकित न होवेगा । सो छ आगार कहते हैं
आगार
प्रथम " रायाभिओगेणं " - राजा — नगर का स्वामी, जेकर वो राजा कोई अनुचित काम जोरावरी से करावे, तो सम्यक्त्व में दूषण नहीं ।