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________________ नवम परिच्छेद बंध करे, इस बात में संदेह नहीं । तथा जो जीव आठ कोड़ी, अठ लाख, आठ हज़ार, आठ सौ, आठ वार; इस पंचपरमेष्ठी मन्त्र का जाप करे वो जीव तीसरे भव में सिद्ध हो जाता है। इस वास्ते सोते, उठते प्रथम नमस्कार मन्त्र का.स्मरण करना । तिसके पीछे धर्मजागरणा करनी।। यथा-मै कौन हूं, क्या मेरी जाति है, क्या मेरा कुल है, कौन मेरा इष्ट देव है, कौन मेरा गुरु है, धर्मजागरणा क्या मेरा धर्म है, क्या मेरे अभिग्रह हैं, क्या मेरी अवस्था है, क्या मैने सुकृतादि करा है, क्या मैंने दुष्कृतादि नहीं करा है, क्या मैं करने समर्थ हूं, क्या मैं नहीं कर सकता हूं, मुझ को कोई देखता है कि नहीं, अपनी भूल को आत्मा जानता है, फिर क्यों नहीं छोड़ता, तथा आज कौनसी तिथि है, क्या अहंत का कल्याणक दिन है, आज मेरा क्या कृत्य है, मै किस देश में तथा किस काल में हूं! सवेरे उठ के एसे स्मरण करने से जीव सावधान हो जाता है । जो विरुद्ध कृत्य है। उनका परिहार करता है तथा अपने नियम का निर्वाह अरु नवीन गुण की प्राप्ति होती है । इसी धर्मजागरणा से प्रतिबुद्ध होकर आनंद, कामदेवादि श्रावकों ने प्रतिमादि विशेष धर्मकरनी का अनुष्ठान किया है । . तिस पीछे जो श्रावक प्रतिक्रमण करनेवाला होवे, तो प्रतिक्रमण करे । अरु जो प्रतिक्रमण न करे, स्वप्नविचार सो मी रागादिमय कुस्वप्न प्रद्वेषादिमय अनिष्ट फल का सूचक, तिसके दूर करने
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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