________________ . 282 जैनतवादर्श माधु का यथार्थ धर्म कहता था, अरु अपना पाखण्डवेष पूर्वोक्त रीति से प्रगट कह देता था। जो पुरुष इसके पास धर्म सुन कर दीक्षा लेनी चाहता था, तिसको भगवान् के साधुओं को दे देता था। एक समय मरीचि मांदा ( रोगग्रस्त ) हुआ। तब विचार किया कि मैं तो असंयती हूं, इस वास्ते साधु मेरी वैयावृत्त्य नहीं करते हैं, अरु मुझे करानी भी युक्त नहीं है, तब तो कोई चेला भी मुझे वैयावृत्य वास्ते करना चाहिये / तिस काल में श्रीऋषभदेवजी निर्वाण हो गये थे। पीछे एक कपिल नामक राजा का पुत्र था, सो मरीचि के पास धर्म सुनने को आया / तब मरीचिने उसको यथार्थ साधु का लिंग आचार कहा। तब कपिलने कहा कि तेरा लिंग विलक्षण क्योंकर है ? तब मरीचिने कहा कि मैं साधुपना पालने को समर्थ नहीं हूं, इस वास्ते मैंने यह लिंग निर्वाह के वास्ते स्वकपोलकल्पित बनाया है। तब कपिलने कहा कि मुझे श्रीऋषभदेव के साधुओं का धर्म रुचता नहीं है, आप कहो कि आप के पास भी कुछ धर्म है, या नहीं ! तब मरीचिने नाना, यह भारीकर्मी जीव है, मेरा ही शिष्य होने योग्य है। इस लोम से मरीचिने कह दिया कि, वहां भी धर्म है, अरु मेरे पास भी कछुक धर्म है। यह सुन कर कपिल मरीचि का शिष्य हो गया। यह कपिल मुनि की उत्पत्ति है। उस वक्त मरीचि के पास तथा कपिल के पास कोई भी