________________ एकादश परिच्छेद 283 पुस्तक नहीं था, केवल जो कुछ आगार मरीचिने कपिल को बता दिया, सोई आचार कपिल करता रहा। मरीचिने उत्सूत्रभाषण करने से एक कोटाकोटी सागरोपम लग संसार में जन्म मरण की वृद्धि करी। मरीचि तो काल कर गया अरु पीछे से कपिल ग्रन्थार्थ ज्ञानशून्य मरीचि की वताई हुई रीति पर चलता रहा। उस कपिल का आसुरी नामा शिष्य हुआ / कपिलने आसुरी को भी आचार मात्र ही मार्ग बतलाया। कपिलने और भी बहुत शिष्य बनाये, उनके प्रेम में तत्सर हुआ। मर के ब्रह्म नामक पांचमे देवलोक में देवता हुआ। तव उत्पत्ति के अनन्तर अवधिज्ञान से देखा कि, मैने क्या दानादि अनुष्ठान करा है ! जिस से मै देवता हुआ हूं। तब अवधिज्ञान से ग्रन्थज्ञान शून्य अपने आसुरी नामा शिष्य को देखा। तब विचार करा कि मेरा शिष्य कुछ नहीं जानता; इसको कुछ तत्त्व उपदेश करूं। ऐसा विचार कर कपिल देवता आकाश में पञ्चवर्ण के मण्डल में रह कर तत्त्वज्ञान का उपदेश करता भया कि, अन्यक्त से व्यक्त प्रगट होता है। तिस अवसर में षष्टितंत्र शास्त्र आसुरीने बनाया / तिस में ऐसा कथन करा कि प्रकृति से महत् होता है, अरु महत् से अहंकार होता है, अहंकार से षोडश गण होता है। तिस षोडशगण में से पञ्चतन्मात्रों से पांच भूत इत्यादि स्वरूप