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________________ अष्टम परिच्छेद १४. मदिरा पीनेवाले का विवेक नष्ट हो जाता है । १५. संयम नष्ट हो जाता हैं। १६. ज्ञान नष्ट हो जाता है । १७. सत्य नष्ट हो जाता है। १८ शौच नष्ट हो जाता है। १९. दया नष्ट हो जाती है । २०. क्षमा नष्ट हो जाती है । जैसे अग्नि से तृण भस्म हो जाते हैं, तैसे पूर्वोक्त गुण भी उस का नष्ट हो जाते हैं । २१. मदिरा, चोरी अरु परस्त्रीगमन आदिक का कारण है । क्योंकि मदिरा पीनेवाला कौन सा कुकर्म नहीं कर सकता है ! २२. मदिरा आपदा तथा वघ, बंधनादिकों का कारण है । २३. मदिरा के रस में बहुत जीव उत्पन्न होते हैं, इस वास्ते दया धर्मी को मदिरा न पीनी चाहिये । २४. मद्य पीनेवाला दिये को अनदिया कहता है । २५. लिये को नहीं लिया कहता है। २६. करे को न करा कहता है । २७. मद्यपी घर में तथा वाहिर पराये धन को निर्भय हो कर लूट लेता है। २८ मदिरे के उन्माद से वालिका, यौवनवती, वृद्धा, ब्राह्मणी, चण्डालिनी प्रमुख लियो से भोग कर लेता है । २९. मधप अरराट शब्द करता है । ३०. गीत गाता है । ३१. लोटता है । ३२. दौड़ता है। ३३. क्रोध करता है । ३४ रोता है । ३५. हंसता है । ३६. स्तंभवत् हो जाता है । ३७. नमस्कार करता है । ३८. भ्रमता है । ३९. खड़ा रहता है। ४० नट की तरें अनेक नाटक करता है । ४१. ऐसी वो कौनसी दुर्दशा है, जो मदिरा पीनेवाले को नहीं होती है। शास्त्रों में सुनते हैं, कि साम्बकुमार ने
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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