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जैन तत्रवादर्श
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मदिरा नीच
मदिरा पी कर द्वैपायन ऋषि को सताया, तब द्वैपायन ने द्वारका को दग्ध किया । ४२. मदिरा पीना सर्व पापों का मूल है । ४३. मदिरा पीनेवाला निश्चय नरक गति में जावेगा । ४४. मदिरा सर्व आपदा स्थान है । ४५. मदिरा अकीर्त्ति का कारण है । ४६. म्लेच्छ लोक पीते हैं । ४७. गुणी जन जो हैं, सो वाले की निंदा करते हैं । ४८. मदिरा पठ्ठे में लग जाने से तत्काल मर जाता है । ४९ मदिरा पीनेवाले के मुख से महा दुर्गन्ध आती है । ५०. मदिरा सर्व शास्त्रों में निंदित है । ५१. मदिरा पीनेवाला ईश्वर का भक्त नहीं । इत्यादि मदिरा पीने में अनेक दोष हैं, इस वास्ते श्रावक मदिरा न पीवे ।
मदिरा पीने
सातमा अभक्ष्य मांस है । मांस भक्षण करने में जो दूषण है, सो लिखते हैं। जो पुरुष मांस मांसभक्षण का खाने की इच्छा करता है, वो पुरुष, दयानिषेध धर्मरूपी वृक्ष की जड़ काटता है । क्योंकि जीव के मारे बिना मांस कदापि नहीं हो सकता है । जेकर कोई कहे कि हम मांस भी खा लेवेंगे, अरु प्राणियों की दया भी करेंगे। एसे कहनेवाले को हम उत्तर देते हैं, कि सर्वदा जो मांस के खानेवाले हैं अरु अपने मन में दयाधर्मी बनना चाहते हैं, वो पुरुष अग्नि में कमल लगाना चाहते हैं । क्योंकि जब उनोंने मांस खाया तब प्राणियों की दया उन के मन में कदापि नहीं हो सकती है । जैसे अंब
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