SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 516
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 489 द्वादश परिच्छेद गाम मंदिर के खरच वास्ते दिये, और यह बड़ा ऊंचा जो शिव का मंदिर है, सो भी उसीने बनवाया। और हम इस नगर में रहते हैं, परन्तु मिथ्यादृष्टियों के बलवान होने से हम जिनमंदिर बनाने नहीं पाते हैं। इस वास्ते आप से विनति करते हैं कि, इस मंदिर से अधिक हमारा मन्दिर यहां बने तो ठीक है, और आप सर्व तरे से समर्थ हैं। तिन का वचन सुन कर वादींद्रने अवंति में आकर चार श्लोक हाथ में ले कर विक्रमादित्य के द्वार पास आये / दरवाजेदार के मुख से गजा को कहलाया दिदृक्षुभिक्षुरायानस्तिष्ठति द्वारवारितः / हस्तन्यस्तचतुःश्लोक उतागच्छतु गच्छतु / / तिस श्लोक को सुनकर विक्रमादित्यने बदले का यह श्लोक लिखकर भेजा दत्तानि दश लक्षाणि, शासनानि चतुर्दश / हस्तन्यस्तचतुःश्लोक उतागच्छतु गच्छतु / तिस श्लोक को सुन कर आचार्यने कहला मेजा कि भिक्षु तुम को मिलना चाहता है, परन्तु धन नहीं लेता। तब राजाने सन्मुख वुलवाये और पिछान के कहने लगा कि गुरुनी, बहुत दिनों पीछे दर्शन दिया। तब आचार्य कहने लगे कि धर्मकार्य के करने से बहुत दिन हो गये, इस वास्ते चिर से आना हुआ है / अव चार श्लोक तुम सुनो
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy