________________ 490 जैनतत्वादर्श अपूर्वेयं धनुर्विद्या, भवता शिक्षिता कुतः / मागणौधः समभ्येति, गुणो याति दिगंतरे // 1 // सरस्वती स्थिता वक्त्रे, लक्ष्मीः करसरोरुहे / कीर्तिः किं कुपिता राजन् !, येन देशांतरं गता ? // 2 // कीर्तिस्ते जातजाडयेव, चतुरंभोधिमन्जनात्, / आतपाय धरानाथ ! गता माडमंडलम् // 3 // सर्वदा सर्वदोसीति, मिथ्या संस्तूयसे जनैः / नारयो लेभिरे पृष्ठं, न वक्षः परयोषितः // 4 // यह चारों श्लोक सुन के राजा बहुत खुश हुआ, और आचार्य को कहने लगा कि जो मेरे राज्य में सार है, सो मांगो तो दे दूं। तब आचार्यने कहा कि मुझे तो कुछ भी नहीं चाहिये / परन्तु ॐकार नगर में चतुर जैनमंदिर शिवमंदिर से ऊंचा वनाओ, और प्रतिष्ठा भी कराओ। तब राजाने बैसे ही करा / तब जिनमत की प्रभावना को देख के संघ तुष्टमान हुआ। इत्यादि प्रकार से जैनधर्म की प्रभावना करते हुए दक्षिण देश में प्रतिष्ठानपुर में जा कर अनशन करके देवलोक गये / तब तहां से संघने एक भट्ट को सिद्धसेन की गच्छ पास खबर करने को भेजा, तिस भट्टने सूरियों की सभा में आधा श्लोक पढा और बार बार पढता ही रहा / वो आधा श्लोक यह है: