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________________ 362 जैनतत्त्वादर्श तीसरा आरा, दो कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण, एक कोस देहमान, एक पल्योपम आयु, चौसठ पृष्ठकरंड की पसलियां, शेष व्यवहार प्रथम आरेवत् जानना / इन सर्व आरों में सर्व वस्तु क्रम से घटती घटती छेड़े अगले आरे तुल्य रह जाती है, परन्तु एक बारगी सर्व वस्तु नहीं घटती है। इस तीसरे आरे के छेडे एक वंश में सात कुलकर ___उत्पन्न हुए / कुलकर उसको कहते हैं कि कुलकर और उन जिनों ने तिस तिस काल के मनुष्यों के की नीति वास्ते कछुक मर्यादा बांधी है। इन ही सात कुलकरों को लोक में सप्त मनु कहते हैं। दूसरे वंशों के कुलकर गिनिये, तब श्रीऋषभदेव को वर्ज के चौदह कुलकर होते है अरु ऋषभनाथ पंदरहवां कुलकर होता है। पूर्वोक्त सात कुलकरों के नाम लिखते है-प्रथम विमलवाहन, दूसरा चक्षुष्मान् , तीसरा यशस्वान्, चौथा अभि. चंद्र, पांचमा प्रश्रेणि, छठा मरुदेव, सातमा नामि। इन सातों की भार्याओं के नाम क्रम से कहते हैं-१. चंद्रयशा, 2. चंद्रकांता, 3. सुरूपा, 4. प्रतिरूपा, 5, चक्षुःकांता, 6. श्रीकांता, 7. मरुदेवी / ये सर्व कुलकर गंगा अरु सिंधु नदी के मध्य के खंड में हुये हैं। ___ यह कुलकर होने का कारण कहते हैं। तीसरे आरे के उतरते दश जाति के कल्पवृक्ष, काल के दोष से थोडे हो
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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