________________ एकादश परिच्छेद 429 करके अपनी जान में कोई भी क्षत्रिय वाकी नहीं छोड़ा। जैसे अग्नि पर्वत ऊपर घास को नहीं छोड़ती हैं, तैसे परशुरामने भी जो जो क्षत्रिय राजादि प्रसिद्ध थे, तिनों को मार के तिनों की दादों से एक थाल भरा / और परशुराम ने छाना निमित्तिये को पूछा कि मेरा मरना किस के हाथ से होगा ! तब निमिचियेने कहा कि, जो तूने दाढों से थाल भरा हैं, सो थाल जिसके देखने से दानों की क्षीर बन जायेगी, और इस सिंहासन पर बैठ के जो तिस क्षीर को खायगा, तिसके हाथ से तेरा मरण होवेगा। यह सुन कर परशुरामने दानशाला बनाई, और दानशाग के आगे एक सिंहासन रचाया, तिस ऊपर क्षत्रियों की दादोंवाला थाल रखवाया / ___अब इधर तापसों के आश्रम में प्रतिदिन तापस सुभूम चालक को लाड़ लड़ाते, खिलाते, अंगन के वृक्ष की तरे वृद्धि करते हुये रहते हैं / इस अवसर में मेध नामा विद्याधर किसी निमिचिये को पूछने लगा कि मेरी जो पद्मश्री कन्या हे, तिसका वर कौन होवेगा ! तव तिस निमित्तियेने सुभूम वर वतलाया, और उसका सर्व वृत्तांत भी सुना दिया। तब मेघ विद्याधरने अपनी बेटी सुभूम को व्याही और तिसका ही सेवक बन गया। एकदा कूप के मेंडक की तरे और कहीं न जाने से सुभम अपनी माता को पूछने लगा कि, हे माता ! इतना ही लोक