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नवम परिच्छेद
१७७ तथा काटे हुए लर, सिंघाड़े, सोपारी आदि, तथा बीज रहित किया हुआ पक्क फल खरबूजादि, गाढ़ मर्दन से कणरहित किया हुआ जीरादि, ये सर्व अंतर्मुहर्त लग मित्र हैं। पीछे प्राशुक का व्यवहार है। तथा और भी प्रबल अग्नि के योग विना प्राशुक करे हुए अंतर्मुहूर्त तक मिश्र हैं, पीछे प्राशुक का व्यवहार है। तथा अप्राशुक पानी, कच्चा फल, कच्चा अन्न, इनको लेकर बहुत मर्दन भी करें, तो भी लवण अग्न्यादिक प्रबल शस्त्र बिना ये प्राशुक नहीं होते हैं। क्योंकि श्रीपञ्चमांग भगवती सूत्र के उन्नीसमे शतक के तीसरे उद्देश में लिखा है कि, वज्रमयी शिला पर वज्रमयी लोढ़ा से आमले प्रमाण पृथ्वीकाय लेकर इक्कीस बार पीसे, तब कितनेक पृथ्वी के जीवों को लोढे का स्पर्श भी नहीं हुआ है. ऐसी उन नीवों की सूक्ष्मकाया है। तथा सौ योजन से उपरांत आये हुए हरड़ां, खारक, किसमिस, लाल द्राक्षा, मेवा, खजूर, काली मिरच, पीपर, जायफल, बदाम, अखरोट, न्योजा, जरगोजा, पिस्ता, सीतलचीनी, स्फटिक समान उज्ज्वल संघालण, सज्जी, भट्ठी में पकाया हुआ लूण, वनावट का खार, कुंभार की कमाई हुई मट्टी, इलायची, लवंग, जावत्री, सूखी मोथ, कोकण देश प्रमुख के केले, कदलीफल, उबाले हुए संघाड़े, सोपारी-इन सर्व का प्राशुक व्यवहार है । साधु भी कारण पडे तो ले लेवे। यह बात कल्पभाष्य में भी लिखी है। यथा