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________________ १२४ जैनतत्त्वादर्श : बहुत है, इस वास्ते यह व्यापार श्रावक न करे। : १०. पांचमा विषकुवाणिज्य-संखिया-सोमल, वच्छनाग, अफीम, मनसिल, हरताल, 'चरस, गांजा प्रमुख तथा शस्त्र-धनुष, तलवार, कटारी, छुरी, बरछी, फरसी, कुहाड़ी, कुशी, कुद्दाल, पेशकवज़, बंदूक, ढाल, गोली, दारु, बक्तर, पाखर, जिलम, तोप प्रमुख, जिन के द्वारा संग्राम करते हैं, तथा हल, मूसल, ऊखल, दंताली, कर्वत, दात्री, गोला, हवाई, पकाटा, कुहक, शतघ्नी प्रमुख सर्व हिंसा ही के अधिकरण है। इन का जो व्यापार करना, सो सब विषवाणिज्य हैं । इस में बहुत हिंसा होती हैं। ये पांच कुत्राणिज्य हैं। अब पांच सामान्य कर्म कहते हैं, ११. प्रथम यन्त्रपीलन कर्म-तिल, सरसों, इक्षु आदि पीलाय करके बेचना, यह सर्व जीवहिंसा के निमित्त रूप यन्त्रपीलन कर्म है। १२. दूसरा निलांछन कर्म-बैल, घोड़ों को खस्सी करना, घोड़े, बलद, ऊंट प्रमुख को दाग देना, कोतवाल की नौकरी, जेलखाने का दरोगा, ठेका लेना, मसूल इनारे लेना, चोरों के गाम में वास करना, इत्यादि जो निर्दयपने का काम है, सो सर्व निलाछन कर्म है। । १३. तीसरा दावाग्निदान कर्म-कितनेक मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीव धर्म मान के बन में आग लगा देते हैं, वो अपने मन में जानते हैं कि, नवा घास उत्पन्न होवेगा, तब गौएं
SR No.010065
Book TitleJain Tattvadarsha Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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